Mirza Ghalib Shayari : इश्क़ ने ‘ग़ालिब’ निकम्मा कर दिया, वर्ना हम भी आदमी थे काम के


महफ़िल

ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के, हम रहें यूँ तिश्ना-लब पैग़ाम के.

शिकवा

ख़स्तगी का तुम से क्या शिकवा कि ये, हथकण्डे हैं चर्ख़-ए-नीली-फ़ाम के.

आशिक़

ख़त लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो, हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के.

ज़मज़म

रात पी ज़मज़म पे मय और सुब्ह-दम, धोए धब्बे जामा-ए-एहराम के.

आँख

दिल को आँखों ने फँसाया क्या मगर, ये भी हल्क़े हैं तुम्हारे दाम के.

ग़ुस्ल-ए-सेह्हत

शाह के है ग़ुस्ल-ए-सेह्हत की ख़बर, देखिए कब दिन फिरें हम्माम के.

ग़ालिब

इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया, वर्ना हम भी आदमी थे काम के.

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